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केस स्टडी विधि (Case-Study Method) : आइए आखिर जाने कि केस स्टडी है क्या?

केस स्टडी से तात्पर्य है किसी भी वस्तु, स्थिति का भलीभांति बारीकी से जांच पड़ताल करना व जानना। इसका बुनियादी आधार विद्यार्थी की जिज्ञासु प्रवृत्ति को माना जाता है। दूसरे शब्दों में मनुष्य का सम्पूर्ण ज्ञान उसकी जिज्ञासु प्रवृत्ति का परिणाम है और केस स्टडी किसी ज्ञान, अनुभव को पाने का साधन है। इस विधि में विद्यार्थी की स्वयं समाधान ढूंढने में सक्रिय भूमिका रहती है , जबकि अध्यापक की भूमिका विद्यार्थियों को समस्या से भलीभांति परिचित कराना है।
व्यक्तिगत अध्ययन अपने में एक पहेली (समस्या) होती है जिसे हल किया जा सकता है। इस पहेली में ब हुत सी सूचनायें समाहित रहती है। इन सूचनाओं का विशलेषण कर हल निकाला जा सकता है। केस स्टडी की विषय वस्तु व्यक्ति, स्थान या सत्य घटना पर आधारित होती है। यह किसी एक इकाई का सम्पूर्ण विश्लेषण होता है। 
यंग के अनुसार ‘‘ केस स्टडी किसी इकाई के जीवन का गवेषणा तथा विश्लेषण की पद्धति है चाहें वह एक व्यक्ति, परिवार, संस्था हस्पताल, सांस्कृतिक समूह या सम्पूर्ण समुदाय हो।’’

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वर्तमान शिक्षा प्रणाली में शिक्षक का उत्तर दायित्व बढ़ गया है और उसकी स्वतंत्रता कम कर दी गयी है। शिक्षक की भूमिका ‘‘छात्रों के अधिगम’’ के लिए एक व्यवस्थापक की होती है। शिक्षक एक सलाहकार एवं मार्गदर्शक के रूप में होता है। शिक्षक को अपनी कक्षा में समस्यात्मक बालकों से रूबरू होना पड़ता है। ऐसे बालकों के सुधार के लिए शिक्षक को हमेशा तत्पर रहना चाहिए। इसके लिए शिक्षक ‘समस्यात्मक बालक’ के सुधार के लिए उसके पूर्व इतिहास को स्वयं उसके परिवार से, उसके मित्रों से पूछताछ करके तथ्यों का संकलन करता है। इस अध्ययन द्वारा वह उन कारणों को खोजता है। जिसके फलस्वरूप उसका आचरण व व्यवहार असमान्य होता है। प्राप्त कारणों के आधार पर शिक्षक समस्यात्मक बालक का उपचार करता है।

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भारतीय संविधान की प्रस्तावना Preamble of Indian Constitution in Hindi | samvidhan ki prastavna

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संविधान की प्रस्तावना (Preamble of the Constitution)

samvidhan-ki-prastavana

उद्देशिका

  • संविधान के अधिकार का स्त्रोतः प्रस्तावना कहती है कि संविधान भारत के लोगों से शक्ति अधिगृहीत करता है।
  • भारत की प्रकृतिः यह घोषणा करती है कि भारत एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक व गणतांत्रिक राजव्यवस्था वाला देश है।
  • संविधान के उद्देश्यः इसके अनुसार न्याय, स्वतंत्रता, समता व बंधुत्व संविधान के उद्देश्य हैं।
  • संविधान लागू होने की तिथि: यह 26 नवंबर, 1949 की तिथि का उल्लेख करती है।

प्रस्तावना में मुख्य शब्द

  • प्रत्यक्ष
  • अप्रत्यक्ष।
  • परिपृच्छा (Referendum),
  • पहल (Initiative),
  • प्रत्यावर्तन या प्रत्याशी को वापस बुलाना (Recall)
  • जनमत संग्रह (Plebiscite)"
  • विधि के समक्ष समता (अनुच्छेद-14)।
  • धर्म, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर मूलवंश निषेध (अनुच्छेद-15)।
  • लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता (अनुच्छेद-16)।
  • अस्पृश्यता का अंत (अनुच्छेद-17)।
  • उपाधियों का अंत (अनुच्छेद-18)।

प्रस्तावना की अंतर्वस्तु

  • संविधान बनाने के अधिकार का स्रोत अर्थात भारत के लोग
  • संविधान का उद्देश्य न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व है
  • भारतीय राज्य की प्रकृति संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और गणतंत्रात्मक है
  • भारतीय संविधान को अपनाने की तारीख 26 नवंबर 1949 है।

प्रस्तावना का महत्व

प्रस्तावना का उद्देश्य.

  • प्रस्तावना इंगित करती है कि संविधान भारत के लोगों द्वारा बनाया गया है।
  • प्रस्तावना इंगित करती है कि भारतीय लोग स्वयं को संविधान देते हैं।
  • प्रस्तावना संविधान को अधिनियमित करती है।
  • प्रस्तावना भारत के लिए संविधान द्वारा परिकल्पित देश के रूप को निर्दिष्ट करती है।
  • प्रस्तावना उन अधिकारों और स्वतंत्रता की घोषणा करती है जिन्हें भारत के लोग अपने नागरिकों के लिए सुरक्षित करना चाहते थे।
  • प्रस्तावना में संविधान के उद्देश्य शामिल हैं, जो भारत के लोगों के लिए न्याय, समानता और स्वतंत्रता को सुरक्षित करना है।
  • प्रस्तावना में लोगों के बीच भाईचारा पैदा करने और राष्ट्र की एकता और अखंडता के साथ-साथ व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित करने का उद्देश्य भी शामिल है।

प्रस्तावना : क्या यह संविधान का अंग है?

  • (क) बेरुबारी तथा
  • (ख) केशवानंद भारती मुकदमा वाद।
  • संविधान की प्रस्तावना, संविधान निर्माताओं के दिमाग को खोलने की कुंजी हैं, इससे संविधान में शामिल विभिन्न प्रावधानों को स्पष्ट किया जा सके।
  • प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं है। 
  • यह संविधान के प्रावधानों के द्वारा सरकार को दी गई शक्तियां का स्रोत नहीं हैं।
  • इस प्रकार की शक्तियां, संविधान में समाविष्ट एवं अंतर्निहित प्रदान कर की गयी हैं।
  • शक्तियों के संबंध में जो सत्य है, वही निषेध, सीमांकन व नियंत्रण के विषय में भी सत्य होता है।
  • संविधान की प्रस्तावना का पहला भाग सम्प्रभुत्ता की अवधारणा को सीमित करता है जब वह सम्प्रभु शक्ति का प्रयोग कर किसी अन्तराष्ट्रीय संधि के द्वारा भारत के किसी भूभाग को सत्तंतरित करने पर रोक लगाता है।
  • (क) संविधान की प्रस्तावना संविधान का अंग है,
  • (ख) प्रस्तावना न तो शक्ति का स्रोत है, न सीमित या निषिद्ध का स्रोत है,
  • (ग) संविधान के ऐसे प्रावधानों की व्याख्या करने में प्रस्तावना का अत्यधिक महत्व है, जिनमें प्रावधान की वृहद् और गहरी पहुंच को समझना हो या किसी प्रावधान में अस्पष्टता हो! ऐसे प्रावधानों में अर्थ के प्रस्तावना पर निर्भर रहा जा सकता है। जिन प्रावधानों का अर्थ व भाषा स्पष्ट है, उनकी व्याख्या के लिए प्रस्तावना पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।

संविधान के एक भाग के रूप में प्रस्तावना

  • प्रस्तावना न तो विधायिका की शक्ति का स्रोत है और न ही उसकी शक्तियों पर प्रतिबंध लगाने वाला।
  • यह गैर-न्यायिक है अर्थात इसकी व्यवस्थाओं को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।

प्रस्तावना में संशोधन की संभावना

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सीधे आपके मेल बॉक्स में अपना ई मेल एड्रेस सब्मिट करें, भारत के संविधान की प्रस्तावना (preamble) के बारे में ख़ास बातें, sparsh upadhyay.

23 Jan 2020 6:11 AM GMT

भारत के संविधान की प्रस्तावना (Preamble) के बारे में ख़ास बातें

भारत के संविधान की मसौदा समिति (Drafting Committee) ने यह देखा था कि प्रस्तावना/उद्देशिका (Preamble) को नए राष्ट्र की महत्वपूर्ण विशेषताओं को परिभाषित करने तक ही सीमित होना चाहिए और उसके सामाजिक-राजनीतिक उद्देश्यों एवं अन्य महत्वपूर्ण मामलों को संविधान में और विस्तार से समझाया जाना चाहिए। संविधान के निर्माताओं का अंतिम उद्देश्य एक कल्याणकारी राज्य और समतामूलक समाज का निर्माण करना था, जिसमें भारत के उन लोगों के उद्देश्य और आकांक्षाएं शामिल हों जिन्होंने देश की आजादी की प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था।

भारत के संविधान की प्रस्तावना (Preamble), 13 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा में जवाहरलाल नेहरू द्वारा पेश किये गए उद्देश्य प्रस्ताव (Objective Resolution) पर आधारित है। यह संकल्प/प्रस्ताव 22 जनवरी, 1947 को अपनाया गया था। मौजूदा लेख में हम संविधान की प्रस्तावना को समझने और उसके मुख्य पहलुओं को रेखांकित करने का प्रयास करेंगे। तो चलिए शुरू करते हैं।

प्रस्तावना या उद्देशिका को भारत के संविधान की आत्मा इसलिए भी कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें संविधान के बारे में सब कुछ बहुत संक्षेप में मौजूद है। हमे यह ध्यम में रखना चाहिए कि इसे 26 नवंबर, 1949 को अपनाया गया था और इसे 26 जनवरी, 1950 से लागू किया गया था, जिसे आज हम गणतंत्र दिवस के रूप में भी जानते हैं। गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य AIR 1967 SC 1643 के मामले में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, सुब्बा राव ने यह कहा था कि "एक अधिनियम की प्रस्तावना, उसके उन मुख्य उद्देश्यों को निर्धारित करती है, जिसे प्राप्त करने का इरादा कानून रखता है ।"

हम यह कह सकते हैं कि, भारत के संविधान की प्रस्तावना, एक संक्षिप्त परिचयात्मक वक्तव्य है जो संविधान के मार्गदर्शक उद्देश्य, सिद्धांतों और दर्शन को निर्धारित करती है।

प्रस्तावना, निम्नलिखित के बारे में एक विचार देती है: (1) संविधान का स्रोत, (2) भारतीय राज्य की प्रकृति (3) इसके उद्देश्यों का विवरण और (4) इसके अपनाने की तिथि।

आइये अब उद्देशिका/प्रस्तावना को एक बार पढ़ लेते हैं

हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

वर्ष 1949 में संविधान सभा द्वारा अपनाई गई मूल प्रस्तावना ने भारत को "प्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य" घोषित किया था। आपातकाल के दौरान लागू वर्ष 1976 के 42वें संविधान संशोधन द्वारा, "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" शब्द भी प्रस्तावना में जोड़े गए; प्रस्तावना अब "संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य" पढ़ी जाती है। गौरतलब है कि भारतीय जीवन बीमा निगम एवं अन्य बनाम कंज्यूमर एजुकेशन और रिसर्च एवं अन्य 1995 SCC (5) 482 के मामले के अनुसार, 'प्रस्तावना' भारत के संविधान की अभिन्न अंग है।

उद्देशिका/प्रस्तावना की उपयोगिता

एक बिल की प्रस्तावना, उस दस्तावेज़ का एक परिचयात्मक हिस्सा होती है जो दस्तावेज़ के उद्देश्य, नियम, और उसके दर्शन को समझाती है। एक प्रस्तावना, दस्तावेजों के सिद्धांतों और मूलभूत मूल्यों को उजागर करके दस्तावेजों का एक संक्षिप्त परिचय देती है। यह दस्तावेज़ के अधिकार के स्रोत को दर्शाती है।

भारत के संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक प्रस्ताव है जिसमें देश के लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए नियमों और विनियमों के सेट शामिल हैं। इसमें नागरिकों के आदर्श को समझाया गया है। प्रस्तावना/उद्देशिका को संविधान की शुरुआत माना जा सकता है जो संविधान के आधार पर प्रकाश डालती है।

बेरुबरी यूनियन केस AIR 1960 SC 845 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि प्रस्तावना, संविधान का हिस्सा नहीं है, बल्कि इसे संविधान के प्रावधानों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत माना जाना चाहिए। हालाँकि, केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य AIR 1973 SC 1461 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले फैसले (बेरुबरी) को बदल दिया और यह कहा कि प्रस्तावना, संविधान का हिस्सा है, जिसका अर्थ यह है कि इसे संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संशोधित किया जा सकता है। हालाँकि ऐसे संशोधन से संविधान का मूलभूत ढांचा बदला नहीं जा सकता है।

उद्देशिका में मौजूद विभिन्न शब्द एवं उनके अर्थ

भारत के संविधान की उद्देशिका में कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनके अर्थ को समझना हमारे लिए महत्वपूर्ण है। यह शब्द न केवल भारत के संविधान के स्वाभाव को दर्शाते हैं बल्कि यह भी बताते हैं कि भारत, किस प्रकार के राष्ट्र के रूप में कार्य करेगा। लेख के इस भाग में हम उन कुछ शब्दों के बारे में बात करेंगे।

'हम, भारत के लोग' एवं 'प्रभुत्व-संपन्न': वाक्यांश "हम, भारत के लोग" इस बात पर जोर देता है कि यह संविधान, भारतीय लोगों द्वारा एवं उनके लिए निर्मित है और किसी भी बाहरी शक्ति द्वारा यह संविधान हमे नहीं सौंपा गया है। हमारा संविधान, 'संप्रभुता' की अवधारणा पर भी जोर देता है जिसके बारे में महान पॉलिटिकल दार्शनिक एवं विचारक, रूसो द्वारा भी बात की गयी थी। 'प्रभुत्व-संपन्न' होने का अर्थ, सभी शक्ति लोगों से निकलती है और भारत की राजनीतिक प्रणाली, लोगों के प्रति जवाबदेह और जिम्मेदार होगी।

सिंथेटिक एंड केमिकल्स लिमिटेड बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1989 SCR Supl. (1) 623 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह अभिनिर्णित किया था कि शब्द 'प्रभुत्व-संपन्न' का मतलब है कि राज्य के पास संविधान द्वारा दिए गए प्रतिबंधों के भीतर सब कुछ करने की स्वतंत्रता है। यह मामला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें कहा गया कि कोई भी राष्ट्र का अपना संविधान तब तक नहीं हो सकता है जब तक कि वह संप्रभु न हो।

'समाजवादी': वर्ष 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा यह शब्द जोड़ा गया। "समाजवाद", एक ऐसे आर्थिक दर्शन के रूप में समझा जा सकता है जहां उत्पादन और वितरण के साधन राज्य के स्वामित्व में होते हैं। हालाँकि, भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया है, जहां राज्य के अलावा, निजी क्षेत्र के लोगों द्वारा उत्पादन का कार्य किया जा सकता है। यह एक राजनीतिक-आर्थिक प्रणाली है जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करती है। सामाजिक दर्शन (Socialist Philosophy) के रूप में समाजवाद, सामाजिक समानता (democratic Ssocialism) पर अधिक बल देता है।

मिनर्वा मिल्स लिमिटेड एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य AIR 1980 SC 1789 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने "समाजवाद" को इस प्रकार समझा था कि राष्ट्र, संविधान में मौजूद मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निदेशक तत्त्व के सिद्धांतों के आपसी समन्वय के द्वारा अपने लोगों को सामाजिक-आर्थिक न्याय दिलाने का प्रयास करता है। वहीँ ए यर इंडिया वैधानिक निगम बनाम यूनाइटेड लेबर यूनियन एवं अन्य 1997(1) LLJ 1113 (SC) के मामले में यह कहा गया था कि, संपत्ति संबंधों, कराधान, सार्वजनिक व्यय, शिक्षा और सामाजिक सेवाओं में परिवर्तन किया जाना, संविधान के तहत एक समाजवादी राज्य की अवधारणा को वास्तविकता में बदलने के लिए आवश्यक हैं।

'पंथनिरपेक्ष': उद्देशिका में पंथनिरपेक्षता की परिकल्पना जिस प्रकार से की गयी है उसका अर्थ है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा और सभी व्यक्ति समान रूप से अपने विवेक की स्वतंत्रता के हकदार होंगे और वे अपनी पसंद के धर्म को अपनाने, उसका अभ्यास करने और उसका प्रचार करने के लिए स्वतंत्र रूप से अधिकार प्राप्त करेंगे। एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ 1994 SCC (3) 1 के मामले में शीर्ष अदालत की 9-न्यायाधीश की पीठ ने पंथनिरपेक्षता की अवधारणा को संविधान की मूल विशेषता के रूप में अभिनिर्णित किया था।

लोकतांत्रिक (लोकतंत्रात्मक): यह इंगित करता है कि संविधान ने सरकार का एक ऐसा रूप स्थापित किया है जो लोगों की इच्छा से अपना अधिकार प्राप्त करती है। सत्ता चलाने वाले शासक, लोगों द्वारा चुने जाते हैं और उनके प्रति जिम्मेदार होते हैं। गौरतलब है कि 'लोकतंत्रात्मक' एवं 'गणराज्य' शब्दों को अलग-अलग समझने के बजाये एक साथ समझा जाना चाहिए।

जैसा कि आर. सी. पौड्याल एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य 1993 SCR (1) 891 के मामले में कहा गया है, हमारे संविधान में, लोकतंत्रात्मक-गणराज्य का अर्थ है, 'लोगों की शक्तियाँ।' इसका संबंध, लोगों द्वारा शक्ति के वास्तविक, सक्रिय और प्रभावी अभ्यास से है। दरअसल लोकतंत्र, एक बहु-पक्षीय प्रणाली है, यह सरकार के प्रशासन को चलाने में लोगों की राजनीतिक भागीदारी को संदर्भित करता है। यह उन मामलों की स्थिति को बताता है जिसमें प्रत्येक नागरिक को राजव्यवस्था में समान भागीदारी के अधिकार का आश्वासन दिया गया है। मोहन लाल त्रिपाठी बनाम डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट 1992 SCR (3) 338 के मामले में भीं यही कहा गया है।

गणराज्य: एक राजतंत्र के विपरीत, जिसमें राज्य के प्रमुख को वंशानुगत आधार पर अपने जीवन भर के लिए सत्ता चलाने हेतु नियुक्त किया जाता है, एक लोकतंत्रात्मक गणराज्य एक ऐसी इकाई है, जिसमें राज्य का प्रमुख, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक निश्चित कार्यकाल के लिए निर्वाचित किया जाता है। भारत के राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मंडल द्वारा 5 वर्षों के लिए किया जाता है। भारत के राष्ट्रपति का पद वंशानुगत नहीं है। भारत का प्रत्येक नागरिक देश का राष्ट्रपति बनने के योग्य है।

भारत के संविधान की प्रस्तावना: कितनी ख़ास?

अंत में, यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत के संविधान की उद्देशिका, अपने आप में मनोहर है क्योंकि यह कुछ हद तक अन्य देशों के संविधान की उद्देशिका से अलग है क्योंकि इसमें इश्वर, इतिहास या पहचान का कोई बोझ नहीं डाला गया है। इसके द्वारा भारत के लोगों से स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय का वादा किया गया है। ऐसा नहीं है कि इश्वर और इतिहास महत्वपूर्ण नहीं हैं, लेकिन हमारी उद्देशिका हमें यह स्वतंत्रता देती है कि हम अपने कृत्यों, अपनी आस्था, अपने विचारों इत्यादि के सम्बन्ध में उचित चुनाव कर सकते हैं।

संविधान की उद्देशिका हमे यह भी बताती है कि एक राष्ट्र की एकता, केवल समूहों की एकजुटता भर नहीं है। यह बताती है कि एक वास्तविक एकता तभी संभव है जब प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा का आश्वासन दिया जाए। उद्देशिका यह बताती है कि यदि व्यक्तिगत गरिमा का सम्मान किया जायेगा तो राष्ट्र को डरने की कोई जरुरत नहीं है। इसलिए संविधान की उद्देशिका, लिबर्टी का एक चार्टर है। इसकी मूलभूत संरचना प्रगतिशील है जो इसे सबसे अलग बनाती है।

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संविधान की प्रस्तावना और प्रमुख शब्दों के अर्थ

Samvidhan Ki Prastavana

संविधान की प्रस्तावना (उद्देशिका)

प्रत्येक संविधान के प्रारंभ में सामान्य रूप से एक प्रस्तावना होती है जिसके द्वारा संविधान के प्रमुख उद्देश्यों को भली-भांति समझा जा सकता है। भारतीय संविधान की उद्देशिका (प्रस्तावना) अमेरिकी संविधान से प्रभावित तथा विश्व में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। उद्देशिका को संविधान का सार माना जाता है और इसे संविधान की आत्मा भी कहा जाता हैं।

प. जबाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य संकल्प में जो आदर्श प्रस्तुत किया गया उन्हें ही संविधान की उद्देशिका में शामिल कर लिया गया। संविधान के 42वें संशोधन 1976 द्वारा यथा संशोधित यह उद्देशिका निम्न प्रकार है:-

हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न , समाजवादी , पंथनिरपेक्ष , लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय , विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता , प्रतिष्ठा और अवसर की समता , प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में , व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए, (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({}); दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ईस्वी (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
  • प्रस्तावना से तात्पर्य संविधान में बनाये गए अधिनियमों को समझना है।

प्रस्तावना का प्रारूप 13 दिसंबर 1946 में प. जबाहरलाल नेहरू ने तैयार करके संविधान सभा में पेश किया और 22 जनवरी 1947 में इसे संविधान सभा द्वारा स्वीकार किया गया।

प्रस्तावना का प्रारूप अमेरिका के संविधान से और प्रस्तावना की भाषा आस्ट्रेलिया के संविधान से प्रेरित है।

अब तक प्रस्तावना में सिर्फ एक बार संशोधन किया गया – 42वां संविधान संशोधन 1976 . इसके द्वारा संविधान में तीन शब्दों को जोड़ा गया – प्रथम पैराग्राफ में समाजवादी , पंथनिरपेक्ष और छठे पैराग्राफ में अखण्डता शब्द जोड़ा गया।

  • प्रस्तावना में तीन प्रकार के न्याय का उल्लेख है – सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक।
  • प्रस्तावना में पांच प्रकार की स्वतंत्रता है – विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, उपासना।
  • प्रस्तावना में दो प्रकार की समता है – प्रतिष्ठा, अवसर।
वास्तव में प्रस्तावना संविधान की कुंजी तथा संविधान का सबसे श्रेष्ठ अंग है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुब्बा राव ने कहा है “ प्रस्तावना संविधानके आदर्शों आकांक्षाओं को बताती है। “

प्रस्तावना में प्रयुक्त प्रमुख शब्दों के अर्थ

संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न से तात्पर्य.

भारत के ऊपर और कोई शक्ति नहीं है और यह अपने आंतरिक और बाहरी मामलों का निस्तारण करने के लिए स्वतंत्र हैं। भारत ना तो किसी अन्य देश पर निर्भर है और ना ही किसी अन्य देश का डोमिनियन है।

समाजवादी से तात्पर्य

उत्पादन के मुख्य साधनों, पूँजी, जमीन, संपत्ति आदि का प्रयोग सामजिक हित में किया जाएगा।

पंथनिरपेक्ष से तात्पर्य

भारत का अपना कोई विशेष धर्म नहीं होगा। भारत देश में सभी धर्म समान हैं और उन्हें सरकार का समान समर्थन प्राप्त है।

लोकतंत्र से तात्पर्य

प्रधान का निर्वाचन जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाएगा, और प्रधान जनता के प्रति उत्तरदायी होगा। अर्थात व्यस्क मताधिकार, समाजिक चुनाव, कानून की सर्वोच्चता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, भेदभाव का अभाव भारतीय राजव्यवस्था के लोकतांत्रिक लक्षण के स्वरूप हैं।

गणराज्य से तात्पर्य

राष्ट्रीय अध्यक्ष का निर्वाचन का एक निश्चित समय के लिए किया जाएगा। तथा भारत में वंशानुगत शासन नहीं होगा।

प्रस्तावना के संविधान का भाग होने पर विवाद

बेरुबारी मामला – 1960.

बेरुबारी मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत दिया कि प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है।

गोलकनाथ मामला – 1967

गोलकनाथ मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत दिया कि प्रस्तावना संविधान निर्माताओं के मन की कुंजी है।

केशवानंद भारती मामला – 1973

केशवानंद भारती मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्व के निर्णय को निरस्त करते हुए यह मत दिया कि प्रस्तावना संविधान का भाग है। और इसमें संशोधन करने का अधिकार संसद को है।

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नमस्कार दोस्तो , आज की हमारी इस पोस्ट में हम आपको भारतीय संबिधान की प्रस्तावना के संबंध में Full Detail में बताऐंगे , जो कि आपको सभी आने बाले Competitive Exams के लिये महत्वपूर्ण होगी 

प्रस्‍तावना या उद्देशिका किसी संविधान के दर्शन को सार रूप मे प्रस्‍तुत करने वाली संक्षिप्‍त अभिव्‍यक्ति होती है। सर्वप्रथम अमेरिकी संविधान निर्माताओं ने अपने संविधान में प्रस्‍तावना को शामिल किया गया था। इसके बाद जैसे-जैसे विभिन्‍न देशों ने अपने संविधान का निर्माण किया, उनमें से कई देशों ने प्रस्‍तावना को महत्‍वपूर्ण समझकर अपने संविधान का हिस्‍सा बनाया। भारतीय संविधान सभा ने 22 जनवरी, 1947 को नेहरू के उद्देश्‍य प्रस्‍ताव को स्‍वीकार किया। इसी उद्देश्‍य प्रस्‍ताव का विकसित रूप हमारे संविधान की प्रस्‍तावना ( उद्देश्‍यका ) है। उद्देश्‍य प्रस्‍ताव और प्रस्‍तावना मिलकर संविधान के दर्शन को मूर्त रूप प्रदान करते हैं।

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्‍य के मामले में उच्‍चतम न्‍यायालय ने स्‍पष्‍ट किया है कि प्रस्‍तावना संविधान के अंग है क्‍योंकि जब अन्‍य सभी उपबन्‍ध अधिनियमित किये जा चुके थे , उसके पश्‍चात् प्रस्‍तावना को अलग से पारित किया गया। संविधान के अन्‍य भागों की तरह प्रस्‍तावना में भी संशोधन संभव है, बशर्ते वह आधारभूत ढॉचे को क्षति न पहॅूचाता हो।

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प्रस्‍तावना की विषय वस्‍तु  (Content of the Preamble)

1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्‍यम से प्रस्‍तावना में तीन शब्‍द- समाजबादी (Spcialist) , पंथ – निरपेक्ष (Secular) तथा अखण्‍डता (Integrity) जोड़े गए थे। इन शब्‍दों के जुड़ने के बाद प्रस्‍तावना का वर्तमान रूप इस प्रकार है –

भारत को एक लोकतंत्रात्‍मक गणराज्‍य बनाने के लिये तथा उसके समस्‍त नागरिकों को:

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक

विचार, अभिव्‍यक्ति, विश्‍वास, धर्म और उपासना की

प्रतिष्‍ठा और अवसर की

प्राप्‍त करने के लिए,

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तथा उन सब में व्‍यक्ति की गरिमा, राष्‍ट्र की एकता और अखण्‍ता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए

दृढ़संकल्‍प होकर अपनी इस संविधानसभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई. ( मिति  मार्गशीर्ष शुक्‍ल सप्‍तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी ) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्‍मार्पित करते हैं।

 

प्रस्‍तावना की उपयोगिता  ( Utility of the Preamble )

भारतीय संविधान की प्रस्‍तावना को संविधान की आत्‍मा कहा गया है। संविधान की प्रस्‍तावना संविधान की व्‍याख्‍या का आधार प्रस्‍तुत करती है। यह संविधान का दर्पण है जिसमें पूरे संविधान की तस्‍वीर दिखाई पड़ती है ! इसकी उपयोगिता है कि यह संविधान के स्‍त्रोत, राजव्‍यवस्‍था की प्रकृति एवं संविधान के उदेृश्‍यों से परिचय कराती है। इसके साथ ही संविधान के अर्थ निर्धारण में एवं ऐतिहासिक स्‍त्रोत के रूप में भी प्रस्‍तावना उपयोगी है।

संविधान का स्‍त्रोत (Sources of constitution )

संविधान की प्रस्‍तावना में प्रयुक्‍त वाक्‍यंश ‘हम भारत के लोग’ प्रमाणित करता है कि भारतीय संविधान का स्‍त्रोत भारतीय जनता है। यह भारतीय राज्‍यव्‍यवस्‍था के लो‍कतांत्रिक पक्ष को भी प्रस्‍तुत करता हैं।

राजव्‍यवस्‍था की प्रकृति का परिचय (Introduction of the nature of polity)

भारतीय राजव्यवस्था की प्रक्रति को स्पष्ट करने के लिये प्रस्ताबना में पांच शब्द बिशेष महत्व के हैं –

1.संपूर्ण प्रभुत्‍व संपन्‍न – इसका अर्थ है कि आंतरिक और वाह्म मामलों में निर्णय लेने लेने के लिए भारत संपूर्ण शक्ति रखता है और किसी भी विदेशी शक्ति को इसमें हस्‍तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है , जहॉं तक राष्‍ट्रकुल का प्रश्‍न है तो भारत उसे ‘स्‍वाधीन राष्‍ट्रों एक संगठन’ के रूप देखता है, न कि ब्रिटिश साम्राज्‍य के विस्‍तार के रूप में। भारत, व्रिटिश सम्राज को राष्‍ट्रकुल के अध्‍यक्ष के रूप में सिर्फ प्रतीकात्‍मक तौर पर स्‍वीकार करता है।

2.समाजवादी- यह शब्‍द प्रस्‍तावना में 42 वें संशोधन 1976 द्वारा जोड़ा गया। भारत आर्थिक न्‍याय की धारणा को लोकतंत्र के साथ मिलाकर चलता है, इस दृष्टि से इसे लोकतांत्रिक समाजवाद कहा जा सकता है। सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने ‘’डी.एस. नकारा बनाम भारत संघ (1982) मामले’’ में स्‍पष्‍ट किया कि भारतीय समाजवाद, गांधीवाद और मार्क्‍सवाद का अनोखा मिश्रण है जो निश्चित रूप से गांधीवाद की ओर झुका हुआ है। भारतीय समाजवाद अर्थव्‍यवस्‍था के स्‍तर पर निजी उद्यमशीलता और सरकारी नियंत्रण दोनों के साथ-साथ रखा है।

1991 में लागू हुई उदारीकरण, निजीकरण तथा भूमंडलीकरण की नीति के बाद भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था विश्‍व-अर्थव्‍यवस्‍था के साथ काफी हद तक जुड़ चुकी है। अत: समाजवादी दलों और चिंतको का आरोप है कि भारत समाजवादी नहीं रहा है और नव-उदारवादी हो गया है।

3.पंथनिरपेक्ष- पंथनिरपेक्ष राज्‍य की सबसे प्रमुख पहचान यह है कि यह न तो किसी  धर्म विशेष को राजकीय धर्म का दर्जा देता है और न ही अपने नागरिकों को धार्मिक स्‍वतंत्रता से वंचित करता है। भारत के संविधान में यह शब्‍द 42वें संशोधन, 1976 द्वारा जोड़ा गया परन्‍तु वास्‍तव में भारत आजादी के समय से ही पंथनिरपेक्ष राज्‍य रहा है। अनु. (25से 28) में धार्मिक स्‍वतंत्रता के अधिकार का अत्‍यंत व्‍यापक रूप से उल्‍लेख किया है। माननीय उच्‍चतम न्‍यायालय ने पंथनिरपेक्षता को संविधान का आधारभूत लक्षण माना है। संविधान में धर्मं के आधार पर विभेद का प्रति‍षेध किया गया है !

4.लोकतांत्रिक- इसका अर्थ है कि भारतीय राजव्‍यवस्‍था शासन के जिस रूप को स्‍वीकार करती है वह लोकतंत्र है, न कि राज्‍यतंत्र, अधिनायकतंत्र या कुछ और। स्‍पष्‍टत: भारत का शासन यहॉं के नागरिकों द्वारा चलाया जाता है। जनसंख्‍या अधिक होने के कारण भारत में अप्रत्‍यक्ष लोकतंत्र को अपनाया गया तथा इसके क्षेत्रीय, भाषायी, धार्मिक, सांस्‍कृतिक, नस्‍लीय विविधता को देखते हुए बहुदलीय लोकतंत्र को स्‍वीकार किया गया है। विचारधारा की दृष्टि से भारतीय लोकतंत्र उदारवादी है और आर्थिक न्‍याय के कारण समाजवादी लोकतंत्र के काफी नजदीक पहॅूच जाता है।

5.गणराज्‍य- इसका अर्थ है कि राज्‍यध्‍यक्ष निर्वाचित होगा न कि वह ब्रिटेन के सम्राट की तरह आनुवंशिक शासन होगा। भारत का राज्‍याध्‍यक्ष ‘राष्‍टपति’ होता है और उसके अप्रत्‍यक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित किया जाता है। इस प्रकार भारत का कोई भी नागरिक यदि अर्हत है तो किसी भी पद पर नियुक्‍त हो सकता है यहॉ तक कि वह ‘राज्‍यध्‍यक्ष’ पद पर भी आसीन हो सकता है।

संविधान के उद्देश्‍यों का परिचय ( Introduction of Constitution )

1.प्रथम उद्देश्‍य है- नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्‍याय उपलब्‍ध कराना – यहॉं न्‍याय कानूनी न्‍याय न होकर वितरणमूलक न्‍याय है जो न्‍याय का व्‍यापक रूप होता है। सामाजिक न्‍याय  के अन्‍तर्गत समाज के मुख्‍य धारा से वंचित लोगो को आरक्षण व अन्‍य प्रकार की सुविधाऍ दी गई हैं। राजनीतिक न्‍याय के अन्‍तर्गत राजनीतिक प्रक्रिया मे सभी नागरिक भाग ले सकते हैं। सार्वभौमिक वयस्‍क मताधिकार के साथ-साथ वंचित वर्गों के लिये राजनीतिक आरक्षण का आधार यही है। आर्थिक न्‍याय का अर्थ है कि समाज की कुल संपदा किसी छोटे से वर्ग तक सीमित न रह जाए अपितु विभिन्‍न वर्गों में आय और जीवन के स्‍तर में अंतराल कम से कम हो। ‘मनरेगा’ जैसे कार्यक्रम आर्थिक न्‍याय के आदर्श को ही साधने का प्रयत्‍न है।

2.दूसरा उद्देश्‍य है- विचार, अभिव्‍यक्ति, विश्‍वास, धर्म और उपासना की स्‍वतंत्रता प्रदान करना- अन्‍य व्‍यक्तित्‍व की स्वतंत्रता को देखते हुए असीमित स्‍वतंत्रता प्रदान नहीं की जा सकती। स्‍वतंत्रता का यह आदर्श मूलत: फ़्रास की क्रान्ति से लिया गया है और इस पर कुछ वेचारिक प्रभाव अमेरिकी संविधान का भी है। इसके अंतर्गत प्रत्‍येक व्‍यक्ति को उतना अधिकतम स्‍वतंत्रता दी जाती है, जितनी स्‍वतंत्रता बाकी व्यक्तियों को भी दी जा सके। स्‍पष्‍ट है कि स्‍वतंत्रता असीमित नहीं हैं। अनुच्‍छेद 19 में दी गई स्‍वतंत्रताओं पर युक्तियुक्‍त निर्बंधन लगाए गए हैं। साथ ही अनु. 25 से 28 तक धर्म और अंत:करण की व्‍यापक स्‍वतंत्रता प्रदान की गई है।

3.तीसरा उद्देश्‍य है- प्रत्‍यके व्‍यक्ति को प्रतिष्‍ठा एवं अवसर की समानता उपलब्‍ध कराना- भारतीय संविधान के अनुच्‍छेद 14 से 18 तक विभिन्‍न प्रकार की समानताऍ उपलब्‍ध कराई गई हैं और असमानताओं का निषेध किया गया है जैसे-अस्‍पृश्‍यता का अंत। साथ ही साथ राज्‍य के नीति-निदेशक तत्‍वों के अन्‍तर्गत महिला और पुरूष के लिये समान अधिकार आदि प्रावधान समानता के आदर्श को उपलब्‍ध कराने में महत्‍वपूर्ण हैं।

4.चौथा उद्देश्‍य है- बंधुत्‍व की भावना का विकास करना- बंधुता का आदर्श फ्रॉस की क्रातिं का मुख्‍य आधार था और वहीं से यह सम्‍पूर्ण विश्‍व में फैला। प्रस्‍तावना में ‘व्‍यक्ति की गरिमा और राष्‍ट्र की एकता और अखण्‍डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता’ को बढ़ाने पर बल दिया गया है। बंधुता का दूसरा अर्थ जो एकता या बंधुता राष्‍ट्र विरोधी भावनाओं पर आधारित हो, भारत के नागरिकों को उससे बचना चाहिये। बंधुता वास्‍तव में वही है जो राष्‍ट्र की एकता को अक्षुण्‍ण बनाए रखे। अनुच्‍छेद 51क. में नागरिकों का यह मूल कर्तव्‍य बताया गया है कि वे ‘भारत के लोगों में समरसता और समान भातृत्‍व की भावना का निर्माण करें जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदों से परे हो’।

संविधान के अर्थ निर्धारण के लिये उपयोगी (Useful for the interpretation of the Constitution)

प्रस्ताबना संविधान के विधिक निर्वचन में सहायक है। किसी भी अधिनियम का अर्थ स्‍पष्‍ट करने के लिए यह संविधान की कुंजी के रूप में कार्य करती है। उच्‍चतम न्‍यायालय ने इस संबंध में निम्‍न निर्णय दिये हैं-

  • प्रस्‍तावना किसी विनिर्दिष्‍ट उपबंध की शक्ति का स्‍त्रोत हो सकता है।
  • विधायिका की शक्तियों पर सीमा अधिरोपित करने के लिये प्रस्‍तावना को स्‍त्रोत नहीं  बनाया जा सकता।
  • यदि किसी अनुच्छेद या प्रावधान के शब्‍दों के दो अर्थ हों या अर्थ संदिग्‍ध या अस्‍पष्‍ट हो तो उस दशा में सही अर्थ तक पहॅूचने के लिये प्रस्ताबना की सहायता ली जा सकती है।

ऐतिहासिक स्‍त्रोत के रूप में (As a historical Source)

उद्देशिका बताती है कि भारत का संविधान 26 नबंबर, 1949 को अधिनियमित और अंगीकृत हुआ !( ध्‍यातव्‍य है कि संपूर्ण भारतीय संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ)।

परीक्षोपयोगी अन्य महत्‍वपूर्ण तथ्‍य

  • प्रस्‍तावना भारतीय संविधान के दर्शन को मूर्त रूप प्रदान करती है।
  • ‘केशवानन्‍द भारतीय बनाम केरल राज्‍य’ मामले में सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने प्रस्‍तावना को संवधान का अंग और संशोधनीय माना।
  • प्रस्‍तावना संविधान निर्माताओं के विचारों को जानने की कुंजी है।
  • प्रस्‍तावना में उन उद्देश्‍यों का कथन है जिन्‍हें हमारा संविधान स्‍थापित करना चाहता है और आगे बढ़ाना चाहता है।
  • 42वें संशोधन 1976 द्वारा प्रस्‍तावना में तीन शब्‍द ‘समाजवादी’, ’पथ निरपेक्ष’, और ‘अखण्‍डता’ जोड़े गए।
  • भारतीय संविधान को 26 नवंबर, 1949 में अंगीकृत, अधिनियमित और सात्‍मार्पित किया गया।
  • प्रस्‍तावना के निम्‍नलिखित शब्‍द संविधान के आधारभूत ढॉचे का हिस्‍सा हैं- सम्‍पूर्ण प्रभुतवसम्‍पन्‍न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्‍य, राष्‍ट्र की एकता ओर अखण्‍डता।
  • प्रस्‍तावना स्‍पष्‍ट करती है कि भारत के शासन की सर्वोच्‍च सत्‍ता भारत की जनता में निहित है।

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My Name is Nitin Gupta और मैं Civil Services की तैयारी कर रहा हूं ! और मैं भारत के हृदय प्रदेश मध्यप्रदेश से हूँ। मैं इस विश्व के जीवन मंच पर एक अदना सा और संवेदनशील किरदार हूँ जो अपनी भूमिका न्यायपूर्वक और मन लगाकर निभाने का प्रयत्न कर रहा हूं !!

मेरा उद्देश्य हिन्दी माध्यम में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने बाले प्रतिभागियों का सहयोग करना है ! आप सभी लोगों का स्नेह प्राप्त करना तथा अपने अर्जित अनुभवों तथा ज्ञान को वितरित करके आप लोगों की सेवा करना ही मेरी उत्कट अभिलाषा है !!

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भारतीय संविधान की उद्देशिका अथवा प्रस्तावना

नेहरू द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य संकल्प में जो आदर्श प्रस्तुत किया गया उन्हें ही संविधान की उद्देशिका में शामिल कर लिया गया. संविधान के 42वें संशोधन (1976) द्वारा संशोधित यह उद्देशिका कुछ इस तरह है:.

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नेहरू द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य संकल्प में जो आदर्श प्रस्तुत किया गया उन्हें ही संविधान की उद्देशिका में शामिल कर लिया गया. संविधान के 42वें संशोधन (1976) द्वारा संशोधित यह उद्देशिका कुछ इस तरह है: "हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को:

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की और एकता अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प हो कर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई० "मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छह विक्रमी) को एतद संविधान को अंगीकृत, अधिनियिमत और आत्मार्पित करते हैं."

प्रस्तावना की मुख्य बातें:

(1) संविधान की प्रस्तावना को 'संविधान की कुंजी' कहा जाता है.

(2) प्रस्तावना के अनुसार संविधान के अधीन समस्त शक्तियों का केंद्रबिंदु अथवा स्त्रोत 'भारत के लोग' ही हैं.

(3) प्रस्तावना में लिखित शब्द यथा : "हम भारत के लोग .......... इस संविधान को" अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं." भारतीय लोगों की सर्वोच्च संप्रभुता का उद्घोष करते हैं.

(4) प्रस्तावना को न्यायालय में प्रवर्तित नहीं किया जा सकता यह निर्णय यूनियन ऑफ इंडिया बनाम मदन गोपाल, 1957 के निर्णय में घोषित किया गया.

(5) बेरुबाड़ी यूनियन वाद (1960) में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि जहां संविधान की भाषा संदिग्ध हो, वहां प्रस्तावना विविध निर्वाचन में सहायता करती है.

(6) बेरुबाड़ी बाद में ही सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्तावना को संविधान का अंग नहीं माना. इसलिए विधायिका प्रस्तावना में संशोधन नहीं कर सकती. परन्तु सर्वोच्च न्यायालय के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्यवाद, 1973 में कहा कि प्रस्तावन संविधान का अंग है. इसलिए विधायिका (संसद) उसमें संशोधन कर सकती है.

(7) केशवानंद भारती ने ही बाद में सर्वोच्च न्यायालय में मूल ढ़ाचा का सिंद्धांत दिया तथा प्रस्तावना को संविधान का मूल ढ़ाचा माना.

(8) संसद संविधान के मूल ढ़ाचे में नकारात्मक संशोधन नहीं कर सकती है, स्‍पष्‍टत: संसद वैसा संशोधन कर सकती है, जिससे मूल ढ़ाचे का विस्तार व मजबूतीकरण होता है,

(9) 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के द्वारा इसमें 'समाजवाद', 'पंथनिरपेक्ष' और 'राष्ट्र की अखंडता' शब्द जोड़े गए.

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Preamble of Indian Constitution : आज है संविधान दिवस, यहां पढ़ें इसकी प्रस्तावना

Constitution day , preamble of indian constitution : संविधान की प्रस्तावना इसकी आत्मा है। प्रस्तावना से मतलब है कि भारतीय संविधान के जो मूल आदर्श हैं, उन्हें प्रस्तावना के माध्यम से संविधान में....

Preamble of Indian Constitution : आज है संविधान दिवस, यहां पढ़ें इसकी प्रस्तावना

Constitution Day , Preamble of Indian Constitution : संविधान की प्रस्तावना इसकी आत्मा है। प्रस्तावना से मतलब है कि भारतीय संविधान के जो मूल आदर्श हैं, उन्हें प्रस्तावना के माध्यम से संविधान में समाहित किया गया। संविधान की प्रस्तावना में नागरिकों के लिये राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक न्याय के साथ स्वतंत्रता के सभी रूप शामिल हैं। प्रस्तावना नागरिकों को आपसी भाईचारा व बंधुत्व के माध्यम से व्यक्ति के सम्मान तथा देश की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने का संदेश देती है। बंधुत्व का उद्देश्य सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, जातिवाद तथा भाषावाद जैसी बाधाओं को दूर करना है। 

संविधान की प्रस्तावना इस प्रकार है -  "हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण  प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा  उसके समस्त नागरिकों को: 

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,  विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना  की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता  प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की  गरिमा और राष्ट्र की और एकता अखंडता  सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़  संकल्प हो कर अपनी इस संविधान सभा में आज  तारीख 26 नवंबर, 1949 ई० "मिति मार्ग शीर्ष  शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छह विक्रमी को एतद संविधान को अंगीकृत, अधिनियिमत और आत्मार्पित करते हैं।''

Constitution Day 2021 : जानें 26 नवंबर को क्यों मनाते हैं संविधान दिवस, क्यों है यह दिन बेहद खास

आपको बता दें कि इंदिरा गांधी के शासन में आपातकाल के वक्त जब 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के द्वारा प्रस्तावना में 'समाजवाद', 'पंथनिरपेक्ष' और 'राष्ट्र की अखंडता शब्द जोड़े गए थे। ये शब्द पहले नहीं थे।

संविधान में शामिल संप्रभुता, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और गणतंत्र शब्द भारत की प्रकृति के बारे में और न्याय, स्वतंत्रता व समानता शब्द भारत के नागरिकों को प्राप्त अधिकारों के बारे में बताते हैं।

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25 Important Supreme Court Judgements for UPSC

Supreme Court judgements are very important to have a better understanding of the Constitution of the country. Many questions have been asked in the UPSC exam about various landmark SC judgements in the past. In this article, we give you a list of 25 of the most important SC judgements in India for the UPSC exam .

Supreme Court judgements are an essential part of the polity and governance segments of the IAS syllabus .

from the linked article

25 Most Important Supreme Court Judgements

SC contented that there was no violation of enshrined in Articles 13, 19, 21 and 22 under the provisions of the Preventive Detention Act, if the detention was as per the procedure established by law. Here, the SC took a narrow view of Article 21.
This case dealt with the amendability of Fundamental Rights (the First Amendment’s validity was challenged). The SC contended that the Parliament’s power to amend under Article 368 also includes the power to amend the Fundamental Rights guaranteed in Part III of the Constitution.
This case was regarding the Parliament’s power to transfer the territory of Berubai to Pakistan. The  examined Article 3 in detail and held that the Parliament cannot make laws under this article in order to execute the Nehru-Noon agreement. Hence, the 9th Amendment Act was passed to enforce the agreement.
The questions in this case were whether amendment is a law; and whether Fundamental Rights can be amended or not. SC contented that Fundamental Rights are not amenable to the Parliamentary restriction as stated in Article 13, and that to amend the Fundamental rights a new would be required. Also stated that Article 368 gives the procedure to amend the Constitution but does not confer on Parliament the power to amend the Constitution.
(1973) This judgement defined the basic structure of the Constitution. The SC held that although no part of the Constitution, including Fundamental Rights, was beyond the Parliament’s amending power, the “ could not be abrogated even by a constitutional amendment.” This is the basis in Indian law in which the judiciary can strike down any amendment passed by Parliament that is in conflict with the basic structure of the Constitution.
The SC applied the theory of basic structure and struck down Clause(4) of article 329-A, which was inserted by the 39th Amendment in 1975 on the grounds that it was beyond the Parliament’s amending power as it destroyed the Constitution’s basic features.
(1978) A main issue in this case was whether the right to go abroad is a part of the Right to Personal Liberty under Article 21. The SC held that it is included in the Right to Personal Liberty. The SC also ruled that the mere existence of an enabling law was not enough to restrain personal liberty. Such a law must also be “just, fair and reasonable.”
This case again strengthens the Basic Structure doctrine. The judgement struck down 2 changes made to the Constitution by the , declaring them to be violative of the basic structure. The judgement makes it clear that the Constitution, and not the Parliament is supreme.
The SC again reiterated the Basic Structure doctrine. It also drew a line of demarcation as April 24th, 1973 i.e., the date of the Kesavananda Bharati judgement, and held that it should not be applied retrospectively to reopen the validity of any amendment to the Constitution which took place prior to that date.
Milestone case for Muslim women’s fight for rights. The SC upheld the right to alimony for a Muslim woman and said that the Code of Criminal Procedure, 1973 is applicable to all citizens irrespective of their religion. This set off a political controversy and the government of the day overturned this judgement by passing the Muslim Women (Protection on Divorce Act), 1986, according to which alimony need be given only during the iddat period (in tune with the Muslim personal law).
This case dealt with 3 issues: Scope of Article 32; rule of Absolute Liability or Rylands vs Fletcher to be followed; issue of compensation. SC held that its power under Article 32 is not restricted to preventive measures, but also remedial measures when rights are violated. It also held that in the case of industries engaged in hazardous or inherently dangerous activities, Absolute Liability was to be followed. Finally, it also said that the amount of compensation must be correlated to the magnitude and capacity of the industry so that it will be a deterrent.
SC examined the scope and extent of Article 16(4), which provides for the reservation of jobs in favour of backward classes. It upheld the constitutional validity of 27% reservation for the OBCs with certain conditions (like creamy layer exclusion, no reservation in promotion, total reserved quota should not exceed 50%, etc.)
In this judgement, the SC tried to curb the blatant misuse of (regarding the imposition of President’s Rule on states).
This case dealt with . In the judgement, the SC gave a set of guidelines for employers – as well as other responsible persons or institutions – to immediately ensure the prevention of sexual harassment. These are called ‘Vishaka Guidelines’. These were to be considered law until appropriate legislation was enacted.
This judgement nullified all mining leases granted by the Andhra Pradesh State government in the Scheduled areas and asked it to stop all mining operations. It declared that forest land, tribal land, and government land in scheduled areas could not be leased to private companies or non-tribal for industrial operations. Such activity is only permissible to a government undertaking and tribal people.
Here, the SC held that the second marriage of a Hindu man without divorcing the first wife, even if the man had converted to Islam, is void unless the first marriage had been dissolved according to the Hindu Marriage Act.
This judgement held that if a law is included in the 9th Schedule of the Indian Constitution, it can still be examined and confronted in court. The 9th Schedule of the Indian Constitution contains a list of acts and laws which cannot be challenged in a court of law. The Waman Rao ruling ensured that acts and laws mentioned in the IX schedule till 24 April 1973, shall not be changed or challenged, but any attempt to amend or add more acts to that schedule will suffer close inspection and examination by the judiciary system.
The SC restored the conviction and sentence of 6-year (RI) rigorous imprisonment imposed on 2 UK nationals who were acquitted by the Bombay High Court in a paedophilia case. The court said that “the sexual abuse of children is one of the most heinous crimes.”
The SC ruled that individuals had a right to die with dignity, allowing passive with guidelines. The need to reform India’s laws on euthanasia was triggered by the tragic case of Aruna Shanbaug who lay in a vegetative state (blind, paralysed and deaf) for 42 years.
This judgement introduced the NOTA (None-Of-The-Above) option for Indian voters.
The SC ruled that any MLA, MLC or MP who was found guilty of a crime and given a minimum of 2 year imprisonment would cease to be a member of the House with immediate effect.
Introduction of the Criminal Law (Amendment) Act, 2013 and definition of rape under the , the Indian Evidence Act, 1872, Indian Penal Code, 1860 and Code of Criminal Procedures, 1973.
This case resulted in the recognition of transgender persons as a third gender. The SC also instructed the government to treat them as minorities and expand the reservations in education, jobs, education, etc.
The SC outlawed the backward practice of instant ‘triple talaq’, which permitted Muslim men to unilaterally end their marriages by uttering the word “talaq” three times without making any provision for maintenance or alimony. Read about the  .
The SC declared the right to privacy as a Fundamental Right protected under the Indian Constitution. 
The SC ruled that was unconstitutional “in so far as it criminalises consensual sexual conduct between adults of the same sex.”
The SC ruled that the power of judicial review vested in the Supreme Court and High Courts by Articles 32 ( ) and 226 respectively is a part of the basic structure of the Constitution.
This SC judgement protects individual rights against the invasion of one’s privacy.
A much-criticised judgement of the SC, in which the majority ruling went against individual freedom and seemed to favour the state. Justice Khanna’s dissent is also well-known.
Here, the SC held that the freedom of speech and expression includes freedom of propagation of ideas that can only be ensured by circulation.

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UPSC Questions related to Important Supreme Court Judgements

What are the landmark judgements, is the supreme court decision final in india, is the supreme court more powerful than parliament, who was the first woman chief justice of india.

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Multiple Choice Question

Consider the following statements

  • Shah Bano Begum case (1985) was a Milestone case for Muslim women’s fight for rights. The SC upheld the right to alimony for a Muslim woman and said that the Code of Criminal Procedure, 1973 is applicable to all citizens irrespective of their religion. However, this judgement was overturned by the Government of the day.
  • In the Minerva Mills case (1980) judgement, SC struck down 2 changes made to the Constitution by the 42nd Amendment Act 1976, declaring them to be violative of the basic structure.
  • In the AK Gopalan Case (1950), SC contented that there was no violation of Fundamental Rights enshrined in Articles 13, 19, 21 and 22 under the provisions of the Preventive Detention Act if the detention was as per the procedure established by law.
  • In the Lily Thomas (2011), the SC ruled that individuals had a right to die with dignity, allowing passive euthanasia with guidelines. 

Choose the correct option from the below-given options

A) Only Statements 1, 2, and 3 are true.

B) All of the above statements are true.

C) None of the above statements are true.

D) Only statements 1, 3, and 4 are true.

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भारतीय समाज

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भारत में दहेज प्रथा

  • 05 Jul 2021
  • सामान्य अध्ययन-I
  • महिलाओं की भूमिका
  • भारतीय समाज की मुख्य विशेषताएँ

यह एडिटोरियल दिनांक 02/07/2021 को द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख “Breaking the chain” पर आधारित है। यह भारत में दहेज से उत्पन्न होने वाली समस्याओं से संबंधित है।

दहेज एक सामाजिक बुराई है जिसके कारण समाज में महिलाओं के प्रति अकल्पनीय यातनाएँ और अपराध उत्पन्न हुए हैं तथा भारतीय वैवाहिक व्यवस्था प्रदूषित हुई है। दहेज शादी के समय दुल्हन के ससुराल वालों को लड़की के परिवार द्वारा नकद या वस्तु के रूप में किया जाने वाला भुगतान है।

आज सरकार न केवल दहेज प्रथा को मिटाने के लिये बल्कि बालिकाओं की स्थिति के उत्थान के लिये कई कानून ( दहेज निषेध अधिनियम 1961 ) और योजनाओं द्वारा सुधार हेतु प्रयासरत है।

हालाँकि इस समस्या की सामाजिक प्रकृति के कारण यह कानून हमारे समाज में वांछित परिणाम देने में विफल रहा है।

इस समस्या से छुटकारा पाने में लोगों की सामाजिक और नैतिक चेतना को प्रभावी बनाना, महिलाओं को शिक्षा तथा आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान करना एवं दहेज प्रथा के खिलाफ कानून को प्रभावी ढंग से लागू करना मददगार हो सकता है।

दहेज प्रथा का प्रभाव

  • लैंगिक भेदभाव: दहेज प्रथा के कारण कई बार यह देखा गया है कि महिलाओं को एक दायित्व के रूप में देखा जाता है और उन्हें अक्सर अधीनता हेतु विवश किया जाता है तथा उन्हें शिक्षा या अन्य सुविधाओं के संबंध में दोयम दर्जे की सुविधाएँ दी जाती हैं।
  • समाज के गरीब तबके प्रायः दहेज में मदद के लिये अपनी बेटियों को काम पर भेजते हैं ताकि वे कुछ पैसे कमा सकें।
  • मध्यम और उच्च वर्ग के परिवार अपनी बेटियों को नियमित रूप से स्कूल तो भेजते हैं लेकिन कॅरियर विकल्पों पर ज़ोर नहीं देते।
  • कई महिलाएँ अविवाहित रह जाती हैं: देश में लड़कियों की एक बेशुमार संख्या शिक्षित और पेशेवर रूप से सक्षम होने के बावजूद अविवाहित रह जाती है क्योंकि उनके माता-पिता विवाह पूर्व दहेज की मांग को पूरा करने में सक्षम नहीं हैं।
  • यह महिलाओं को केवल वाणिज्य के लेख (articles of commerce) के रूप में प्रस्तुत करता है।
  • महिलाओं के विरुद्ध अपराध: कुछ मामलों में दहेज प्रथा महिलाओं के खिलाफ अपराध को जन्म देती है, इसमें भावनात्मक शोषण और चोट से लेकर मौत तक शामिल है।

आगे की राह 

  • निःसंदेह किसी कानून का निर्माण व्यवहार का एक पैटर्न निर्धारित करता है, सामाजिक विवेक को सक्रिय करता है और अपराधों को समाप्त करने में समाज सुधारकों के प्रयासों को सहायता प्रदान करता है।
  • हालाँकि दहेज जैसी सामाजिक बुराई तब तक मिट नहीं सकती जब तक कि लोग कानून के साथ सहयोग न करें।
  • यह बदले में उसे आर्थिक रूप से मज़बूत होने और परिवार में योगदान देने वाले एक सदस्य बनने में मदद करेगा, जिससे परिवार में सम्मान के साथ  उसकी स्थिति भी सुदृढ़ होगी।
  • इसलिये बेटियों को अच्छी शिक्षा प्रदान करना और उन्हें अपनी पसंद का कॅरियर बनाने के लिये प्रोत्साहित करना सबसे अच्छा दहेज है जो कोई भी माता-पिता अपनी बेटी को दे सकते हैं।
  •  केंद्र और राज्य सरकारों को लोक अदालतों, रेडियो प्रसारणों, टेलीविज़न और समाचार पत्रों के माध्यम से 'निरंतर' लोगों के बीच 'दहेज-विरोधी साक्षरता' को बढ़ाने के लिये प्रभावी कदम उठाया जाना चाहिये।
  •  दहेज प्रथा के खतरे से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये युवा आशा की एकमात्र किरण हैं। उन्हें जागरूक करने और उनके दृष्टिकोण को व्यापक बनाने के लिये उन्हें नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिये।
  •  लैंगिक असमानता को दूर करने के लिये राज्यों को  जन्म, प्रारंभिक बचपन, शिक्षा, पोषण, आजीविका, स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच आदि से संबंधित डेटा देखना चाहिये और उसके अनुसार रणनीति बनानी चाहिये।
  • बाल संरक्षण और सुरक्षित सार्वजनिक परिवहन का विस्तार करने, काम में भेदभाव को कम करने और कार्यस्थल के अनुकूल वातावरण बनाने की आवश्यकता है।
  • घर पर पुरुषों को घरेलू काम और देखभाल की ज़िम्मेदारियों को साझा करना चाहिये।

 निष्कर्ष

दहेज प्रथा न केवल अवैध है बल्कि अनैतिक भी है। इसलिये दहेज प्रथा की बुराइयों के प्रति समाज की अंतरात्मा को पूरी तरह से जगाने की ज़रूरत है ताकि समाज में दहेज की मांग करने वालों की प्रतिष्ठा कम हो जाए।

 दृष्टि मेन्स प्रश्न:  दहेज प्रथा न केवल अवैध है बल्कि अनैतिक भी है। अतः दहेज प्रथा के दुष्परिणामों के प्रति सामाजिक चेतना जगाने की आवश्यकता है। टिप्पणी कीजिये।

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COMMENTS

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